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राजनीति की बिसात पर मोहरा भर है दलित ?

नुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से देश में दलित राजनीति एक बार फिर से उफान पर है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने केवल इस कानून के दुरुपयोग को लेकर चिंता जताते हुए इतना भर कहा था कि इस कानून के तहत आरोपित को तुरंत गिरफ्तार न करके लगाये गये आरोपों की पहले प्राथमिक जांच की जाये। जिसे दलित नेताओं ने ही नहीं विपक्ष में बैठे हर दल ने राजनीतिक से प्रेरित होकर सुनियोजित तरीके से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को सरकार का फैसला है साबित कर दलित हित के नाम प्रोक्सी वाॅर यानी छद्म युद्ध का ऐलान कर दिया। यह तय है कि अगले आम चुनाव तक राजनीतिक दलों के बीच छद्म युद्ध़ जारी रहेगा और खुद को दूसरों के मुकाबले सबसे बड़े दलित हितैषी बताने के लिए देश जल जाये कोई फर्क नहीं पड़ता केवल सत्ता हाथ में आनी चाहिए। यह केवल दलितों को लेकर ही नहीं धर्म के नाम पर भी ऐसे कार्ड भविष्य में खेले जाने है जिसके लिए सरकार को तैयार रहना होगा। सत्ता के लिए झूठ का सहारा लेने से भी बाज नहीं आया जाएगा, यह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के इस बयान से साबित होता है कि एससी-एसटी एक्ट को तो हटा दिया गया है। गहराई से देखा जाये तो दलित हित के मामले में कोई भी राजनीतिक दल ईमानदार नहीं। सबकी दिलचस्पी केवल दलितों के वोट हासिल करने में ही है। लेकिन इन दलितों की पीड़ा और झटपटाहट को कोई नहीं समझपा रहा है।

                2 अप्रैल को हुई बंद काण्ड़ में जो कुछ हुआ वो इसी झटपटहाट का नतीजा था जिसे इन तथाकथित दलित नेताओं ने भुनाया भर लेकिन यही लोग अगर अपने संख्या बल को देखे तो पायेगें कि इन्हें इस अक्रोश को स्वार्थ भरी राजनीति से इतर कोई स्वस्थ और वैकल्पिक रास्ता खोजना होगा। बीते कुछ वक्त में देश में दलितों पर अत्याचारों को लेकर कई छोटे-बड़े प्रदर्शन हुए. लेकिन हाल में कई दलित संगठनों ने दलितों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ 2 अप्रैल को प्रदर्शन की अपील की। देश के कई हिस्सों में प्रदर्शन हुए, कुछ जगहों पर हिंसा की घटनाएं भी हुईं। हजारों लोगों ने इसमें हिस्सा लिया और मांग की कि इस कानून को ना बदला जाए। आशंका जताई जा रही है कि इस कानून में बदलाव होने से दलितों के प्रति भेदभाव और उत्पीड़न के मामले बढ़ जाएंगे। दलितो का झंड़ा बुलन्द करने वाली पार्टी बसपा प्रमुख मायावती ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हुई भारत बंद के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में कहा,  ''भारत  बंद की व्यापक सफलता और इस दौरान खासकर दलितों और आदिवासियों में जबर्दस्त आक्रोश होने से केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकारें डर गई हैं कि सत्ता उनके हाथों से खिसक रही है। उन्होंने अब इन वर्गों के प्रति हर तरफ पुलिस और सरकारी तंत्र के आतंक का तांडव शुरू कर दिया है''  इनका यह बायन क्या दर्शता है यह तो समझ आता ही है कि सत्ता से दूरी अब सही नही जा रही और इस बढ़ते उन्माद को कैसे और रंग दिया जाये यह तो, यह राजनीतिक पार्टियां बाखुबी जानती है।
         जिस आदेश का मायावती पुरज़ोर विरोध कर रही हैं इन्होंने 2007 में सत्ता में आते समय एससी-एसटी एक्ट को लेकर करीब-करीब वैसे ही दिशानिर्देश जारी किए थे जैसे हाल में सुप्रीम कोर्ट ने दिए लेकिन वह इन दिनों यह साबित करने की कोशिश में हैं कि सरकार दलित विरोधी है और वे एक दलित नेता जिसमें कोई दोराय भी नही है, साथ ही एक तथ्य यह भी है कि दलितों के उत्पीड़न और भेदभाव के तमाम मामलों में राजनीतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं अथवा उनके समर्थकों का ही हाथ होता है। अगर हर राजनीतिक दल दलितों का हितैषी है और उन्हें बराबरी का अधिकार देने के लिए प्रतिबद्ध है तो फिर ऐसे आंकड़े क्यों सामने आ रहे हैं कि दलितों के उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ रही हैं? जाहिर है कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि दलित हित के मामले में राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में अंतर है

 इस विषम समय में सत्ता में आसीन भाजपा के पास एक ही रास्ता बचता है कि वो भी यह साबित करे कि वो दलित विरोधी नहीं है और अगड़ों का दल होने के साथ-साथ दबे कुचलों के लिए दिल खोलकर खड़ी है फौरीतौर पर देखा जाये तो भाजपा का यह दावा सही तो है कि उसके पास अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के सांसदों की संख्या सबसे अधिक है, लेकिन क्या यह संख्याबल सरकार और संगठन के स्तर पर भी कहीं दिखती है? भाजपा की मुसीबत इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि उसके खुद के कुछ दलित सांसद यकायक नाराज हो उठे हैं। इन दलित सांसद को यकायक संविधान और आरक्षण खतरे में नजर आने लगा, यह बात और है कि यह नाराजगी भी फर्जी ही अधिक लग रही है। क्योंकि इन में से किसी भी संासद ने न तो इस्तीफा दिया है न ही संगठन से इस विषय पर कोई चर्चा ही की है। इस में कोई संदेह शेष नही है कि दलितों की दशा में सुधार न होने का एक बड़ा कारण ऐसे दलित नेता भी हैं जो अपने समाज के बजाय अपने स्वार्थ की चिंता अधिक करते हैं। देश में दलित नेताओं अथवा उनके तथाकथित हितैषी नेताओं की कमी नहीं, लेकिन ऐसे नेता मुश्किल से ही दिखते हैं जो उनकी अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को सही तरह समझने में समर्थ हों। एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को लेकर आयोजित भारत बंद के दौरान केवल इसलिए उग्रता देखने को नहीं मिली कि अन्य दलों ने लोगों को उकसाने का काम किया अथवा हिंसा का सहारा लेने में संकोच नहीं किया। उग्रता का एक कारण यह भी रहा कि दलित समाज अपने अधिकारों के हनन को लेकर आशंकित था। इस आशंका ने उसकी बेचैनी बढ़ा दी थी, लेकिन भाजपा और इसके नाराज दलित सांसदों समेत अन्य दलों को इस बेचैनी का कहीं कोई आभास ही नहीं था। वे जमीनी हकीकत से अनजान थे। बेहतर तो यह हो कि देश के सभी राजनीतिक दल व तथाकथित दलित नेताओं को खुद को दलित हितैषी दिखाने की दौड़ लगाने के बजाय दलित समाज की बेचैनी के मूल कारणों को समझना होगा। वहीं दलित समाज को भी यह समझना होगा की वो राजनीति और अपने इन दलित नेताओं की चालों को समझे और राजनीति की शतरंज का एक प्यादा भर न बने जिसे जब चाहे कोई भी अपने स्वार्थ के लिए होम कर दे।

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