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कौन है दलित ?


भारत में दलित एक राजनीतिक समुदाय के तौर पर ही देखे जाते हैं। जब हम दलित शब्द सुनते हैं, इसका इस्तेमाल करते हैं तो एक लड़ाका समूह का ख्याल जेहन में आता है।
मगर जब हम दलित समुदाय को बारीकी से देखते हैं, तो समझ में आता है कि दलित सिर्फ राजनीतिक समुदाय नहीं। इनकी अपनी सांस्कृतिक परंपराएं हैं, जो बाकी समुदायों से अलग हैं। हालांकि कुछ पश्चिमी लेखक और विचारक यह कहते हैं कि दलितों की अपनी कोई संस्कृति नहीं। दो साल पहले इलाहाबाद के गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान की मदद से दलितों से बीच लोकप्रिय संप्रदायों और सांस्कृतिक परंपराओं की एक शोध के माध्यम से पड़ताल की गई जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और ओडिशा राज्य को शामिल किया गया जिसमें कबीरपंथ, सतनामी पंथ और महिमा धर्म के पंथों की परंपराओं को जानने-समझने की कोशिश की हम यह देखकर हैरान रह गए कि दलितों की रोजमर्रा की जिंदगी, उनका व्यवहार, उनकी अक्लमंदी और लोक परंपराओं की उनकी जानकारी, इन्हीं पंथों या संप्रदायों के चलते पली-बढ़ी थी। गांवों में रहने वाले दलितों से बातचीत के दौरान हमने उनके लोकगीत, उनकी पौराणिक कहानियों के रिकॉर्ड दर्ज किए। इस दौरान हमें बार-बार कबीर, रैदास, गुरु घासीदास और महिमा स्वामी की बातों और उनके किस्सों से सामना हुआ।
आदि हिंदू पंथ के स्वामी अच्युतानंद का दलितों की चेतना पर असर एकदम साफ दिखा। जन्म से लेकर मौत तक के उनके तमाम संस्कार और परंपराएं, उनके आध्यात्मिक विचार, सब के सब इन संतों और पंथों से प्रभावित दिखे। हालांकि हम यह कहते हैं कि संतों की कोई जाति नहीं होती। मगर हम पिछड़े वर्ग और दलितों के बहुत से संतों के बारे में सुनते-पढ़ते आए हैं। जैसे रैदास, धाना और पीपा। भक्ति युग के दौरान इन संतों की जातिगत पहचान भी बनी। इन संतों का ज्यादा असर दलित समुदायों की जिंदगी और उनकी संस्किृति और परंपराओं पर पड़ा। साथ ही दलितों के बीच लोकतांत्रिक विचार का बीज बोने का श्रेय डॉ। भीमराव अंबेडकर को जाता है।
संतों की परंपरा में अंबेडकर ने जोड़ी आधुनिक चेतना 
अंबेडकर ने ही दलितों को लोकतांत्रिक मूल्यों से परिचित कराया। उन्हें इसकी अहमियत समझाई। दलितों को अंबेडकर ने लोकतांत्रिक तरीके से अपना हक मांगना सिखाया। उन्हें बताया कि एक समुदाय के तौर पर कैसे वो लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा बन सकते हैं। कैसे देश के जिम्मेदार नागरिक बनकर प्रशासन से अच्छे संबंध रख सकते हैं। हम इस नजरिए से देखें तो लगता है कि दलितों की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का विकास डॉ। अंबेडकर जैसे सुधारवादियों की वजह से हुआ। हम कह सकते हैं कि आज दलितों के बीच जो चेतना हम देखते हैं, वह एक तरफ तो संतों की परंपरा से प्रभावित है और दूसरी तरफ डॉ। अंबेडकर जैसे आधुनिक सुधारवादियों से भी उसे प्रेरणा मिली है।
ऐसे में दलितों की राजनीति करने वाले नेता और दल जब सिर्फ अंबेडकर के असर के चश्मे से दलित जागरण और उत्थान की बात करते हैं, तो वो समुदाय की परंपराओं और मूल्यों की अनदेखी कर जाते हैं। हमें समझना होगा कि दलितों की सांस्कृतिक-सामाजिक परंपरा और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए उनका संघर्ष, एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। अगर हम दोनों को अलग करके देखेंगे तो हम दलित समुदाय की पूरी भावना को नहीं समझ सकेंगे।
कांशीराम को थी दलित राजनीति की गहरी समझ 
यूपी के वोटर के बारे में ये कहा जाता है कि वो अक्सर भावनाओं में आकर वोट देता है बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम इस बात को अच्छे से समझते थे। इसीलिए वह छ्त्तीसगढ़ के रामनवमी मेले में गए और वहां भाषण दिया क्योंकि वहां बड़ी तादाद में दलित समुदाय के लोग आते थे। कांशीराम ने सतनामियों से मिलकर बीएसपी की लीडरशिप तैयार की। साथ ही साथ कांशीराम ने अंबेडकर के विचारों को भी अपनी राजनीतिक लड़ाई का हिस्सा बनाया। कांशीराम को एक दलित सुधारक के तौर पर अंबेडकर की अहमियत का अंदाजा था। हालांकि कांशीराम और अंबेडकर के बहुत से मुद्दों पर विचार एकदम अलग थे। लेकिन कांशीराम ने अंबेडकर की उन बातों को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाया, जिससे वो इत्तेफाक रखते थे।
कबीरपंथ और रविदास पंथ ने दी दलितों को सांस्कृतिक पहचान
कबीरपंथी और रविदास पंथ का नाम लेने से दलितों की अलग सांस्कृतिक पहचान सामने आती है। साथ ही इस वजह से उनकी राजनीतिक पहचान भी उजागर होती है। आज की तारीख में दलित बड़ी तेजी से एक बड़े लोकतांत्रिक समुदाय के तौर पर पहचान बना रहे हैं। इसमें कबीरपंथ और संत रविदास जैसे गुरुओं का बड़ा योगदान रहा है।
सदियों से ऐसे विचारकों ने दलित चेतना को जगाने का काम किया है। इन संतों ने दलितों को समझाया है कि कैसे वे शांति से, अहिंसा से अपने लोकतांत्रिक हक की लड़ाई लड़ सकते हैं। बाद में अंबेडकर ने इस चेतना को आगे बढ़ाने का काम किया। दलितों के बीच आत्मसम्मान, इंसानियत, बराबरी के अधिकार और जाति के बंधन से आजादी के विचार इन संतों की विचारधारा की वजह से ही पनपे। इस शोध में ये बार-बार देखने को मिला कि दलित, एक आम नागरिक की तरह ही संविधान और राज्य के कानून का सम्मान करना चाहते हैं। इसके दायरे में रहकर अपने हक की लड़ाई लड़ना चाहते हैं। वे किसी लड़ाई या हिंसक आंदोलन का हिस्सा नहीं बनना चाहते।

दलित शब्द का संविधान में कोई जिक्र नहीं

दलित शब्द का जिक्र सबसे पहले 1831 की मोल्सवर्थ डिक्शनरी में पाया जाता है। फिर बाबा भीमराव अंबेडकर ने भी इस शब्द को अपने भाषणों में प्रयोग किया। कुछ जानकार बताते हैं कि 1921 से 1926 के बीच ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल ‘स्वामी श्रद्धानंद’ ने भी किया था। दिल्ली में दलितोद्धार सभा बनाकर उन्होंने दलितों को सामाजिक स्वीकृति की वकालत की थी।

2008 में नेशनल एससी कमीशन ने सारे राज्यों को निर्देश दिया था कि राज्य अपने आधिकारिक दस्तावेजों में दलित शब्द का इस्तेमाल न करें। दलित पैंथर्स ने दिया पिछड़ों को नया नाम साल 1972 में महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स मुंबई नाम का एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनाया गया। आगे चलकर इसी संगठन ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। नामदेव ढसाल, राजा ढाले और अरुण कांबले इसके शुरुआती प्रमुख नेताओं में शामिल हैं। इसका गठन अफ्रीकी-अमेरिकी ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रभावित होकर किया गया था। यहीं से ‘दलित’ शब्द को महाराष्ट्र में सामाजिक स्वीकृति मिल गई। लेकिन अभी तक दलित शब्द उत्तर भारत में प्रचलित नहीं हुआ था। नॉर्थ इंडिया में दलित शब्द को प्रचलित कांशीराम ने किया। जिसका मतलब है दलित शोषित समाज संघर्ष समिति। इसका गठन कांशीराम ने किया था और महाराष्ट्र के बाद नॉर्थ इंडिया में अब पिछड़ों और अति-पिछड़ों को दलित कहा जाने लगा था।

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