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सुप्रीम पहल, क्या बदलेगी दिल्ली की सूरत ?

उच्च न्यायालय के जस्टिस एमबी लोकुर व दीपक गुप्ता की बेंच ने न्याय मित्र (एमीकस क्यूरी) रंजीत कुमार की रिपोर्ट पर मंगलवार को फैसला देते हुए बेंच ने डीडीए की उस अपील को भी खारिज कर दिया, जिसमें उसने दिल्ली के संशोधित मास्टर प्लान (2021) पर लगी रोक हटाने की मांग की थी। देश की उच्च न्यायालय ने राजधानी की सभी 1,797 अवैध कॉलोनियों में निर्माण पर रोक लगाते हुए, इन्हें नियमित करने की मंशा पर सवाल उठाते हुए सरकार को स्पेशल टास्क फोर्स का गठन कर सड़कों, फुटपाथ व सरकारी जमीन पर हो रहे अतिक्रमण को हटाया जाने के निर्देश जारी किया है। साथ ही यह आदेश भी दिया है कि कोई इलाका ऐसा नहीं होना चाहिए, जहां कानून का राज न हो। उच्च न्यायालय ने साथ ही यह भी जोड़ की एक तरफ वैध कॉलोनियां हैं जो नियमों का पालन करती हैं, दूसरी तरफ अवैध कॉलोनियां इनका सरेआम उल्लंघन करती हैं। उच्च न्यायालय की आखरी पंक्तियों पर गौर किया जाये तो साफ है कि वर्तमान और निवर्तमान सरकारें ईमानदारी बरती तो दिल्ली इतनी बदसूरत नहीं होती। उच्च न्यायालय का निर्णय सराहनीय है, लेकिन इस पर ईमानदारी से अमल हो पाएगा, इसमें संदेह है। अगर
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कौन है दलित ?

भारत में दलित एक राजनीतिक समुदाय के तौर पर ही देखे जाते हैं। जब हम दलित शब्द सुनते हैं, इसका इस्तेमाल करते हैं तो एक लड़ाका समूह का ख्याल जेहन में आता है। मगर जब हम दलित समुदाय को बारीकी से देखते हैं, तो समझ में आता है कि दलित सिर्फ राजनीतिक समुदाय नहीं। इनकी अपनी सांस्कृतिक परंपराएं हैं, जो बाकी समुदायों से अलग हैं। हालांकि कुछ पश्चिमी लेखक और विचारक यह कहते हैं कि दलितों की अपनी कोई संस्कृति नहीं। दो साल पहले इलाहाबाद के गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान की मदद से दलितों से बीच लोकप्रिय संप्रदायों और सांस्कृतिक परंपराओं की एक शोध के माध्यम से पड़ताल की गई जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और ओडिशा राज्य को शामिल किया गया जिसमें कबीरपंथ, सतनामी पंथ और महिमा धर्म के पंथों की परंपराओं को जानने-समझने की कोशिश की हम यह देखकर हैरान रह गए कि दलितों की रोजमर्रा की जिंदगी, उनका व्यवहार, उनकी अक्लमंदी और लोक परंपराओं की उनकी जानकारी, इन्हीं पंथों या संप्रदायों के चलते पली-बढ़ी थी। गांवों में रहने वाले दलितों से बातचीत के दौरान हमने उनके लोकगीत, उनकी पौराणिक कहानियों के रिकॉर्ड दर

राजनीति की बिसात पर मोहरा भर है दलित ?

अ नुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से देश में दलित राजनीति एक बार फिर से उफान पर है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने केवल इस कानून के दुरुपयोग को लेकर चिंता जताते हुए इतना भर कहा था कि इस कानून के तहत आरोपित को तुरंत गिरफ्तार न करके लगाये गये आरोपों की पहले प्राथमिक जांच की जाये। जिसे दलित नेताओं ने ही नहीं विपक्ष में बैठे हर दल ने राजनीतिक से प्रेरित होकर सुनियोजित तरीके से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को सरकार का फैसला है साबित कर दलित हित के नाम प्रोक्सी वाॅर यानी छद्म युद्ध का ऐलान कर दिया। यह तय है कि अगले आम चुनाव तक राजनीतिक दलों के बीच छद्म युद्ध़ जारी रहेगा और खुद को दूसरों के मुकाबले सबसे बड़े दलित हितैषी बताने के लिए देश जल जाये कोई फर्क नहीं पड़ता केवल सत्ता हाथ में आनी चाहिए। यह केवल दलितों को लेकर ही नहीं धर्म के नाम पर भी ऐसे कार्ड भविष्य में खेले जाने है जिसके लिए सरकार को तैयार रहना होगा। सत्ता के लिए झूठ का सहारा लेने से भी बाज नहीं आया जाएगा, यह कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के इस बयान से साबित होता है कि एससी-एसटी एक्ट को तो हटा

आम से खास हुई आपकी सरकार

रामलीला मैदान मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए अरविंद केजरीवाल ने सार्वजनिक तौर पर मंच से अपने वादों व आशाओं और आशंकाएं के विषयों को प्रमुखता से जगह दी और उन्हें बिना किसी लाग लपेट के जाहिर भी कर दिया। इसमें कोई संदेह की भी बात नही ं है की जिन वादों की गाड़ी पर सवार होकर 67 सीट की रफ्तार से सत्ता में आई है, उस प्रचंडता और वादों को पूरा करने और इन वादों को पूरा करने में आने वाली अड़चनों को दूर करने की रणनीति में आम आदमी पार्टी के अन्र्तमन में डर और घबराहट होना स्वाभिवक है, और जैसे-जैसे समय निकलेगा यह घबराहट दबाव का रूप लेने लगेगा जो घटेगा नहीं बढे़गा ही। इन नये गढे विचारों और राजनीति की नई पारी में निसंदेह पार्टी विचारो से ज्यादा सरकार इनके कार्यन्वन पर ध्यान देना चाहती है। राजकाज के इसी जोश में शायद आम आदमी पार्टी द्वारा दिल्ली विधानसभा में मीडिया को प्रतिबन्धित किया है। आप के इस ऐलान से ऐसा लगता है कि आप यह कहना चाहती है कि मीडिया उन्हें किसी बात के लिए मजबूर नहीं कर सकता। लेकिन आप को यह नहीं भूलना चाहिए कि मीडिया सरकार और जनता के बीच सेतू का काम करता है,और यह वहीं सेतू है जिसने आप क

जीते तो हर हर मोदी हारे तो किरन बेदी

हाल के दिनों में भारतीय जनता पार्टी जहां-जहां चुनाव जीती, वहां उसने मोदी के चहेते और संघ-स्वीकृत नेताओं को ही कुर्सी पर बैठाया। महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में भाजपा के मुकाबले में कोई ईमानदार छवि की भरोसेमंद पार्टी नहीं थी। साथ ही सत्ता विरोधी रुझान भी भाजपा के पक्ष में गया। लेकिन दिल्ली की राजनीति अलग है और दिल्ली विजय मे भारतीय जनता पार्टी की अनाम मुख्यमंत्री वाली चाल कामयाब नहीं हो पाती । यह स्पष्ट है कि अगर केजरीवाल और उनकी पार्टी मुकाबले में न होते तो   भाजपा अपने वरिष्ठों को दरकिनार कर किरण बेदी को शामिल कभी नहीं करती। भाजपा आलाकमान इस बात को भली भांति समझता है कि दिल्ली  में केजरीवाल और उनकी पार्टी ही उनके लिए एकमात्र चुनौती हैं। दिल्ली की राजनीति के समीकरणों के इन्हीं आंकड़ों को समझते  हुए  भारतीय जनता पार्टी के थ्ािंक टैंको ने बिना समया निकाले, अपनी 49 दिनों की सरकार में बिजली-पानी सस्ता करने वाली आम आदमी पार्टी के मजबूत प्रतिद्वंद्वी अरविंद केजरीवाल के सामने  चुनाव से  पहले शून्य राजनीतिक अनुभव वाली देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी को पार्टी में शामिल किया। इसका मतलब साफ

बहस क्यों नही होनी चहिए?

ट्वीटर पर जबसे अरविंद केजरीवाल ने किरन बेदी को  चुनावी मौसम में बहस के लिए ललकारा और बेदी ने यह कह कर पल्ल छाड़ लिया कि वह विधान सभा में बहस करेंगी तबसे केजरीवाल के ट्वीट से उठे हंगामे से जहां सोशल मीडिया पर चुनावी  चक्कलस करने वाले मजा लेने लगे हैं,वही राजनीति में  दखल रखने वालों के बीच चर्चा तेज हो गई की क्या वाकई बहस होनी चाहिए। अगर दलों के आपसी आरोपों-प्रत्यारोपों और एक-दूसरे पर राजनैतिक आक्षेप लगाने से इतर देखा जाये तो सवाल यह उठता है कि आखिर बहस क्यों न हो। सबसे बड़ी बात यह है कि यह बहस की बात देश की राजधानी के विधान सभा के दौरान उठी है। तो अब सवाल यह आता है कि दिल्ली एक साक्षर राज्य है साथ ही देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में प्रधानमंत्री से लेकर सभी विभागों के दफतर हैं जहां पर निचले स्तर से लेकर कैबिनेट सचिव तक सभी बाबू बैठते हैं। अगर बहस होगी तो हम इस राजनीति को नए सिरे से देख सकेंगे। नेतृत्व की तार्कित और बौद्धिक क्षमता को परख सकेंगे। यह लोकतंत्र के लिए एक नये अध्याय के लिखे जाने का मौका होगा। अगर अब बहस नहीं हो सकती तो कब  होगी और कहां। इतनी उम्मीद व मांग तो जनता की ब

नर्क में बिताए वो लम्हे

... दिल्ली के करनाल बाईपास की भूल-भुलैया में ऐसे उलझे कि वापिस आने के लिए डिवाईडर पर कट ढूंढते-2 अलीपुर जा पहुंचे। वहां से यू टर्न लिया। गंदे नाले के किनारे चलते-चलते वापिस करनाल बाईपास पहुंचे। यहां एक बहुत ही बड़ा कूड़े का पहाड़ दिखाई दिया और उस पर टहलते कुछ लोग। पीछे बैठा अ‍ेंल्ल बोला ‘ अदिति ! ये कूड़ा बीनने वाले लोग हैं जो यहां से खाना ढूंढते हैं!’ ‘नहीं ये मजदूर हैं, जो यहां इस पहाड़ पर कूड़े को साइड में कर रहे हैं। ’ इतना कहकर मैंने कैमरे के जूम में से उन लोगों को देखना शुरू कर दिया। उनमें से एक हाथ में मुझे लिफाफा दिखा तो मैं चौकी कि कहीं अमन की बात सही तो नहीं? मैंने ड्राईवर को कहा कि इस कूड़े के पहाड़ पर ले चलो। ड्राईवर थोड़ा सा हिचकिचाया, पर मैंने उसे दृढ़ता से कहा तो उसने गाड़ी पहाड़ की तरफ मोड़ दी। घुमावदार चढ़ाई से जैसे-जैसे हम पहाड़ पर चढ़ रहे थे, वैसे-वैसे दिल्ली नीचे जा रही थी। ऊपर एक जगह पहुंचकर ड्राईवर ने कहा कि गाड़ी आगे नहीं जाएगी। जाती भी कैसे, हम उस कूड़े के ढ़ेर के पहाड़ की चोटी पर पहुंच चुके थे। वहां कूड़ा ही कूड़ा और उसमें मुंह मारते कौवे, चील, कुत्ते, गाय व भिन-भिनाती मक्खियां ह